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गंदा है पर धंधा है…मालिकों की भर रही तिजोरी, कर्मचारियों की सैलरी के साथ नहीं हो रहा न्याय!

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गंदा है पर धंधा है…मालिकों की भर रही तिजोरी, कर्मचारियों की सैलरी के साथ नहीं हो रहा न्याय!

‘मिल मालिक के कुत्ते भी चर्बीले हैं, लेकिन मज़दूरों के चेहरे पीले हैं’… मशहूर शायर, तनवीर सिप्रा का ये शेर आज के दौर के कॉर्पोरेट की असली कहानी बयान करती है. दरअसल, हाल ही में आई नेशनल स्टैटिस्टिकल ऑफिस (NSO) की एक नई रिपोर्ट में ये बात निकलकर सामने आई है कि वित्त वर्ष 2020 से 2023 के बीच भारत की कंपनियों ने सालाना 27.6 फीसदी की दर से मुनाफा कमाया, जबकि इसी दौरान कर्मचारियों को मिलने वाली कुल सैलरी में सिर्फ 9.2 फीसदी की दर से वृद्धि हुई. ये आंकड़े बताते हैं कि कोविड के बाद कंपनियों की कमाई में जबरदस्त उछाल आया है, लेकिन इसका फायदा कर्मचारियों तक पूरी तरह नहीं पहुंचा.

प्री-लिबरलाइज़ेशन में मज़दूरों का पलड़ा भारी था

फाइनेंशियल एक्सप्रेस में छपी एक खबर के अनुसार, अगर इतिहास की बात करें तो 1981-82 से 1992-93 के बीच सैलरी और मुनाफा लगभग एक ही रफ्तार से बढ़े. 13.6 फीसदी बनाम 14.1 फीसदी. उस समय कुल खर्च (सैलरी + मुनाफा) में से दो-तिहाई हिस्सा मज़दूरों की सैलरी का होता था.

लेकिन 1993 से 1998 के बीच जब उदारीकरण की लहर आई, तो कंपनियों का मुनाफा 30 फीसदी से ज्यादा की दर से बढ़ा, जबकि कर्मचारियों की आय में कोई खास बदलाव नहीं आया.

मंदी, रिकवरी और MGNREGA का असर

1998-2002 के दौरान वैश्विक मंदी और दक्षिण-पूर्व एशियाई आर्थिक संकट के कारण कंपनियों और कर्मचारियों दोनों की कमाई में गिरावट आई. हालांकि 2002 से 2008 के बीच जब अटल सरकार ने इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स शुरू किए, तो कंपनियों का मुनाफा 43 फीसदी तक पहुंच गया, जो अब तक का सबसे अधिक था. इस दौर में सैलरी में भी 12.8 फीसदी की अच्छी बढ़त देखी गई.

इसके बाद 2008-2013 में, MGNREGA जैसे योजनाओं की वजह से श्रमिकों की मांग बढ़ी, जिससे कंपनियों को उन्हें आकर्षित और बनाए रखने के लिए बेहतर वेतन देना पड़ा. नतीजा, उस समय सैलरी में 17.7 फीसदी की रिकॉर्ड बढ़त हुई, जबकि मुनाफा 8.3 फीसदी तक ही सीमित रहा.

कोविड के बाद फिर बदला समीकरण

2013-2020 में आर्थिक सुस्ती, रियल एस्टेट और इंफ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र में संकट और बैंकों की खराब हालत के चलते कंपनियों का मुनाफा लगभग थम गया, ये सिर्फ 0.8 फीसदी की दर से बढ़ा. लेकिन सैलरी में 11 फीसदी की स्थिर ग्रोथ बनी रही. फिर आया कोविड, जिसने इक्वेशन को पूरी तरह पलट दिया. महामारी के बाद कंपनियों का मुनाफा फिर आसमान छूने लगा, लेकिन कर्मचारियों की हिस्सेदारी कुल खर्च में घटकर 40 फीसदी रह गई, जो पहले कभी दो-तिहाई हुआ करती थी.

मज़दूरों की घटती हिस्सेदारी

NSO के आंकड़े बताते हैं कि आज फैक्ट्री ऑपरेशंस में ब्लू कॉलर वर्कर्स (मैनुअल श्रमिकों) की हिस्सेदारी लगातार घट रही है.

1981-82 में जहां 65 फीसदी हिस्सा मजदूरों को मिलता था, वहीं अब यह 47 फीसदी पर आ गया है. इसकी बड़ी वजह ऑटोमेशन और व्हाइट कॉलर वर्कर्स की मांग में बढ़ोतरी है.

महंगाई निगल रही है सैलरी

वेतन वृद्धि को अगर महंगाई दर से मापा जाए, तो तस्वीर और भी चिंताजनक हो जाती है. FY82 से FY23 के बीच सैलरी प्रति व्यक्ति की औसत वृद्धि 9.4 फीसदी रही, लेकिन महंगाई (7.3 फीसदी) निकाल दें, तो हाथ में बहुत कम बचता है. इसका सीधा असर श्रमिकों की जीवन गुणवत्ता और बचत पर पड़ रहा है.

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